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मुझे मेरा भारत लौटा दो – बलराम सेन अज्ञानी

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देश की आजादी के बाद जिस तेजी के साथ भारत में पश्चिम फैशन या रहन-सहन ने पैर पसारना शुरू किया उसे देखकर लगता है कि अब भारत भारत नहीं रहा । जिस प्रकार लोग पुराने कपड़े को उतार कर नया धारण करते हैं ठीक उसी प्रकार हमारे देश के लोगों ने भी धीरे-धीरे भारतीय जीवन शैली को तिलांजलि देकर पश्चिमी जीवन शैली को अंगीकार कर लिया । जब तक भारत में अंग्रेजी हुकूमत थी तब तक भारत से प्रेम करने वालों ने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए भारत की जनता के लिए भारत की जनता के द्वारा चुनी हुई भारत की जनता की सरकार बनाने के लिए मौत की परवाह नहीं की । अंग्रेजी  बंदूको और तोपों के सामने सीना  अड़ा दिया हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए यह सब देखकर यही लगा कि भारत से अंग्रेजी राज्य का पलायन होने के बाद अब भारत की जनता अपने देश की माटी की सुगंध से झूठ उठेगी। यहां का किसान  बिना किसी दबाव के अपने खेतों में फसल उगा कर इसका भरपूर लाभ ले सकेगा। खेती के लिए किसान अपना हल-बैल, अपना बीज अपने घर की खाद अपने नदी- तालाबों का पानी उपयोग करके खुशहाल जीवन व्यतीत करेगा। उसके सिर पर किसी का कर्ज नहीं रहेगा जिसको ना पटा सकने पर उसके घर पर कुर्की वारंट पहुंचे और उस सदमें में उसे फांसी पर झूलना पड़े। सोचिए लगभग 50-60 वर्ष पूर्व यहां तक की देश की आजादी के पहले जंगल हमारे थे जनता बिना किसी रोक-टोक के वन उपज का उपभोग कर सकती थी। जब शिकार पर रोक नहीं थी तब जंगलों में पशु ज्यादा थे आज कम है क्योकि विकास के नाम पर  हमने जंगल नष्ट कर दिया। जब जंगल बाग- बगीचे हमारे थे तब उनमें पैदा होने वाले अनेकों प्रकार के फल बेर, मकुइया, तेंदू, कैथा, बेल, आम, कटहल, चार, करौंदा आदि फल कैंसर शुगर ब्लड प्रेशर जैसी जानलेवा बीमारियों से कोसों दूर रखते थे। घर में पाले हुए गाय भैंसों का दूध और गोबर की खाद से पैदा हुआ अनाज हर व्यक्ति को सौ वर्ष का बलिष्ठ स्वस्थ जीवन प्रदान करता था। उस समय बिजली नहीं थी बड़े-बड़े शादी घर नहीं थे बस या रेलों का परिचालन बहुत कम था अधिकांशतः बैलगाड़ी ही सहारा थी अस्पतालों की संख्या और अस्पतालों में डॉक्टरों की संख्या भी कम थी कहीं लकड़ी बिक्री के केंद्र नहीं थे, कहीं शमशान का निर्माण नहीं था, किसी के घर शौचालय नहीं था, वातानुकूलित घर नहीं,  रेल के डिब्बे नहीं गर्मियों में बांस की लकड़ी से बने पंखे ही ठंडी हवा लेने का सहारा थे, कुम्हार के द्वारा बनाए हुए मिट्टी के दीपक में कोल्हू का पेरा हुआ शुद्ध तेल डालकर रोशनी की जाती थी जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता था अर्थात भारत की ग्रामीण संस्कृति ही भारत की पहचान थी लेकिन विकासशील भारत में जंगलों को नष्ट किया जा रहा है नदी तालाब अपनी अंतिम सांसें गिन रहे हैं, गांव का शहरीकरण करने की तैयारी है। सोचिए फिर कैसा भारत बनेगा। आज गांव-गांव में बढ़ती हुई आधुनिकता पश्चिमी देशों का रहन-सहन, तन पर भारतीय वेशभूषा का अभाव जब दिखाई पड़ने लगे तब हम कैसे भारत की कल्पना कर सकते हैं। जब बचपन और जवानी का हर पल मोबाइल कंप्यूटर इंटरनेट में व्यस्त होकर जीवन में मिलने वाले ज्ञान और खेल के मैदान से दूर होकर मरीज बनने के रास्ते पर चल पड़ा हो तब हम किस प्रकार के भारत की कल्पना कर सकते हैं।  जिस देश में दूध दही की नदियां बहती रही हो अर्थात  हर घर में दूध दही मक्खन भरपूर रहता रहा हो वहां के लोग प्लास्टिक के पैकेट  में बंद चिप्स नमकीन कुरकुरे खाकर      भूख मिटा रहे हो और खाली प्लास्टिक की थैलियां भारत भूमि को बंजारा बना रही हो वहां हम किस प्रकार के भारत का निर्माण करने जा रहे हैं।
  “वर्तमान भारत का हर नागरिक जब  नदियों तालाबों का पानी छोड़ जब बिसलरी का बोतल बंद पानी पीने लगे और उन्नत किस्म के चमकीले मशीनों से शुद्ध किए गए अनाज खाकर डायबिटीज ब्लड प्रेशर कैंसर व किडनी जैसे लाइलाज रोगों का मरीज बनने लगे उस समय सोचिए! भारत किस दिशा में जा रहा है। कहने का मतलब सुख पाने के लिए बांस के पंखे को छोड़ वातानुकूलित मशीनों की शरण में गए पर क्या मिला। कबड्डी कुश्ती खो-खो जैसे खेलों को छोड़ हर पल मोबाइल में बीतने लगा । गाय भैंसों के कत्ल खाने खुल गए, शुद्ध दूध को छोड़ डिब्बा बंद पाउडर दूध का उपयोग होने लगा, शुद्ध तेल के दीपक के स्थान पर मोमबत्तियाँ  जलाई  जाने लगी,  खुशी मनाने के लिए बारूदी बम पटाखे फोड़ कर हवा में जहर घोलने का काम किया जाने लगा तब सोचिए कि भारत किस दिशा में जा रहा है। दिखावटी सुख सुविधाओं की लालच में हमने स्वस्थ जीवन को खो दिया और रोगों की गठरी को सिर पर रख लिया क्या ऐसा ही भारत हमें चाहिए। भारतीय धार्मिक ग्रंथो के अलावा दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं है जो गाय को माता मानता हो और पूरे विश्वास से कहता हो की गाय के शरीर में 33 करोड़ देवताओं का वास है। भारतीय धर्म ही हम भारतवासियों को गाय के गोबर व मूत्र को पवित्र मानकर पूजा कार्य में उपयोग करने की प्रेरणा देता है किंतु जब इसी भारत भूमि पर जहां राम और कृष्ण ने जन्म लिया वहां प्रतिदिन सुबह से शाम तक गायों का कत्ल करके उसका खून और मांस भक्षण किया जाता हो इतना ही नहीं यह सब खुली आंखों से देखने वाली भारत की सत्ता पर बैठी सरकार इस पर रोक न लगा पा रही हो तब हम कैसे भारत का निर्माण चाहते हैं।
कृषि भूमि को अधिक उपजाऊ बनाने के नाम पर जहां धरती पर जहरीले रासायनिक  पदार्थ भरे जा रहे हो मुफ्त में मिलने वाली गोबर की खाद को जैविक का नाम देकर जहां उसकी भी कालाबाजारी होने लगी हो नकली जैविक खाद बनने लगा हो तब हमें सोचना पड़ेगा कि हम कैसे भारत की तस्वीर बना रहे हैं।  एक बात और हम किसान को अन्नदाता की उपाधि से नवाजते हैं लेकिन हमारी सरकारों ने क्या कभी सोचा कि भारत में ऐसा नियम बने कि इस अन्नदाता को कभी कर्ज लेने की नौबत ना आए नहीं सोचा तो सोचिए कि जिस देश का किसान गरीब फटेहाल और मजबूर होगा एक बोरी खाद के लिए सुबह से शाम तक भूखे प्यासे लाइन में पिस रहा होगा  वह देश कैसा होगा । देश की आजादी के 70-75 वर्षों में भारत की सत्ता  की मलाई चखने वाले नेताओं ने अपने कोठी बंगले और कई पुस्तो के खाने के लिए धन तो  इकट्ठा कर लिया किंतु किसान रूपी अन्नदाता वहीं का वहीं पड़ा रह गया । गरीब जनता की नब्ज देख- देख कर चिकित्सक अमीर हो गए परंतु दवा खाते-खाते मरीज का शरीर और जेब दोनों जर्जर हो गए फिर भी ठीक ना हुए ।  लाइलाज रोगों के कारण देश में प्रतिदिन ना जाने कितने मरीज मौत की नींद सो रहे हैं फिर भी सरकार विकास की धुन में नाच रही है। क्या ऐसा ही भारत हमें चाहिए । क्या ऐसी ही आजादी पाने के लिए महात्मा गांधी चंद्रशेखर आजाद सरदार भगत सिंह ठाकुर रणमत सिंह सुभाष चंद्र बोस अशफ़ाकउल्ला खान राम प्रसाद बिस्मिल जैसे ना जाने कितने आजादी के रन बाकुरों ने अंग्रेजों की तोपों के सामने अपना सीना अड़ा कर मौत को गले लगाया था । तात्कालिक  सुख की आड़ में दुखों की गठरी सर पर लादे  हुए हम भारत का कैसा भविष्य गढ़ने  जा रहे हैं । आधुनिकता से ओत-प्रोत  भारत से क्या हमारा 70 वर्ष पूर्व का भारत अच्छा नहीं था जहां शुद्धता और स्वदेशी  का वास था । काश! यदि भारतवासियों ने भारत की सभ्यता व संस्कृति को दरकिनार करके आधुनिकता और फैशन का लबादा ना ओढा  होता तो शायद आज वह कोरोना वायरस भी भारतीयों पर भारी न पड़ता जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को एक झटके में ही कई वर्ष पीछे धकेल दिया । सोचिए! इस प्रकार के विकास ने क्या हमारे धन और स्वास्थ दोनों  का विनाश नहीं किया धन धर्म दोनों जा रहा है फिर भी विकास की रट लगाए हम भांगड़ा डांस कर रहे हैं। साथियों ! यदि हम वास्तविक सुख चाहते हैं तो झूठा दिखावटी भारतीयता को नष्ट भ्रष्ट करने वाला अंग्रेज़ियत का लबादा  हमें छोड़ना होगा। बोतलों में भरे बासी पानी को त्याग कर  कुएं के ताजे पानी से ही प्यास बुझाना  होगा। हमें  यह समझना होगा कि पेप्सी कोका कोला या अन्य कोई भी झूठे शीतल पेय  दही या छाछ का स्थान नहीं ले सकते। गाय भैंस का दूध जो ताकत हमें देगा वह बोर्नविटा या अन्य बनावटी पाउडर नहीं दे सकते। भारत की मुख्य पैदावार जवा, ज्वार, मक्का, बाजरा, कोदो आज भी मनुष्य को निरोग और ताकतवर रखने की क्षमता रखते हैं वही है हमारा असली भारत। यह सच है की असली हीरे (भारत) को छोड़कर नकली मृग का पीछा करते-करते हम इतना दूर निकल चुके हैं कि अब पीछे लौटना असंभव दिखता है परंतु यह भी सत्य है कि आधुनिकता की चकाचौंध रोशनी में आगे बढ़ने पर बर्बादी की वह खाई हमारा इंतजार कर रही है जहां से हमारी आने वाली पीढ़ियां भी कभी सुख का सूरज नहीं देख पाएंगी। इसीलिए हम सबको अपने असली भारत की ओर लौटना होगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार
बलराम सेन अज्ञानी

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