पर्यावरण एवं पर्यटन अंक- 32
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उदयपुर के रामगिरी पर्वत में स्थित–
विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला सीता बेंगरा

वीरेंद्र श्रीवास्तव की कलम से
संभाग ब्यूरो दुर्गा गुप्ता
महाकवि कालीदास के “कपाटम् उद्घाट्य सुंदरी” (किवाड़ खोलो सुंदरी) एवं उनकी अर्धांगिनी विद्योत्तमा द्वारा “अस्ति कश्चिद् वाग विशेष” (कोई विद्वान आया है) जैसे दो वाक्य के वार्तालाप ने महामुर्ख कहे जाने वाले कालिदास को विद्वानों की पंक्ति में शामिल कर दिया था. कालिदास और उनकी पत्नी विद्योत्तमा के जीवन के कई पन्ने हम कहानियां किस्सों में अपने बुजुर्गों से या किताबों में पढ़ चुके हैं, लेकिन संस्कृत के महान कवि नाटककार कालिदास की श्रेष्ठ कृति “मेघदूत” के रचनाकाल एवं रचना स्थल की चर्चा में शामिल रहा है सरगुजा जिले के उदयपुर तहसील में स्थित रामगढ़ (रामगिरी) पर्वत शामिल रहा है. यहां तत्कालीन राजाओं द्वारा निर्मित विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला सीता बेंगरा एवं जोगी माला गुफा का स्वरूप नाट्य मंचन के लिए हजारों वर्ष पूर्व के रंगमंच में उपयोग होने वाले समस्त आवश्यक प्राकृतिक उपकरणों से परिपूर्ण था. जो इस चंचल को ऐतिहासिक प्रस्तों में विशिष्ट बनाती है आई आज के पर्यटन में चलते हैं छ.ग. उदयपुर के रामगिरी पर्वत में स्थित कालिदास रचना स्थली एवं विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला ” सीता बेंगरा” एवं “जोगीमाड़ा”–
मध्य प्रदेश से विभाजन के पश्चात छत्तीसगढ़ के बड़े जिलों में बस्तर एवं सरगुजा की चर्चा होती है जिसका विस्तार लगभग 6000 मील था. वर्तमान सरगुजा जिले के समीप बसा उदयपुर एक रियासत थी. किन्तु छत्तीसगढ़ के कई रियासतों की तरह इसका इतिहास भी अज्ञात है. यहां के जंगलों के बीच पाई गई ” सीता बेंगरा” एवं ” जोगीमाड़ा” की गुफाओं में पत्थरों पर उत्कीर्ण पाली भाषा की पंक्तियां इसे गुप्त काल के ऐतिहासिक दस्तावेजों से जोड़ती है. जो उदयपुर रियासत के प्राचीन समृद्धि के पन्नों के कुछ अंश से परिचित कराती है. लेकिन स्वर्णिम गुप्त काल की पाली भाषा का भित्ति लेखन यहां के गुफाओं के कालखंड की जानकारी देती है. पाली भाषा भारत के प्राचीन ज्ञात भाषाओं में से एक है जिसकी लिपि ब्राह्मी लिपि कहलाती थी. इसी पाली भाषा में पत्थर के दीवारों पर कुछ पंक्तियां इसे तत्कालीन समयकाल की एक समृद्ध नाट्यशाला से जोड़ती है.
रामगढ़ में पाली भाषा लिखी पंक्तियां एवं बौद्ध कालीन अवशेष इस गुफानुमा रंग मंच को दो सदी ईशा पूर्व का निर्माण कला प्रदर्शित करता है. संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान कालिदास की अद्वितीय कृति मेघदूत की रचना स्थली से भी कुछ विद्वान इसे जोड़ते हैं . मेघदूत में वर्णित यक्ष को कुबेर द्वारा अलकापुरी से निष्कासित किए जाने के बाद अपनी प्रेयसी को अपना प्रणय संदेश मेघों को ले जाने के लिए प्रार्थना करना और उसे दूत बनाकर अपने संदेश भेजने की अद्वितीय कथा के साथ अलकापुरी तक जाने का पूरे रास्ते का श्रंगारिक वर्णन है. आषाढ़ के प्रथम दिन आकाश में घुमड़ते बादलों को देखकर इन्हीं बादलों के माध्यम से यक्ष की विरह वेदना संदेश को कालिदास ने कल्पना के शब्दों से मेघदूत गीति काव्य में अपनी सम्पूर्ण भावनायें उड़ेल दी है. विद्वान साहित्यकार डॉ. एस के डे के अनुसार इस मेघदूत में 111 पद है शेष पद बाद के जुड़े हुए प्रक्षेप है . प्रकृति का मानवीकरण कर भावना और कल्पना का अद्भुत सामंजस्य मेघदूत में दिखाई पड़ता है. मेघदूत एक श्रंगारिक रचना होने के बावजूद कालिदास ने भारतीय साहित्य की आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का सम्पूर्ण ध्यान इस गीतिकाव्य में रखा है.
कालिदास के जन्म का समय काल अभी भी अज्ञात है किंतु विद्वानों के अनुसार उनके साहित्य सृजन में वर्णित रामगिरी पर्वत का जिक्र एवं कुछ विशिष्ट वृक्षों की श्रृंखला का वर्णन उनके जन्म का कुछ संकेत देता है. इसके अनुसार अलग-अलग मतों के अनुसार तीसरी चौथी शताब्दी का समय उनके जन्म काल का माना जाता है. मेघदूत में वर्णित आषाढ़ का प्रथम दिन और इसी दिन घूमते बादलों को दूत बनाकर यक्ष के प्रियतम तक संदेश पहुंचाने का वर्णन है. इसी जानकारी को दृष्टिगत रखते हुए आषाढ़ मास के प्रथम दिन रामगढ़ की पहाड़ी पर स्थित इस रंगमंच में प्रशासन द्वारा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित करने के परंपरा डाली गई है जिसमें देश भर के विद्वान साहित्य मनीषी एवं कलाकार अलग-अलग वर्षों के आयोजन समारोह में शामिल होते रहे हैं.
उदयपुर तहसील के मुख्य बाजार से लगभग 8 किलोमीटर दूर रामगढ़ पहाड़ी के प्रारंभिक ऊंचाई पर मुख्य मार्ग के बाईं ओर राष्ट्रीय पुरातत्व मंडल रायपुर द्वारा सड़क पर “सीता बेंगरा” एवं “जोगी माड़ा” का बोर्ड आपका ध्यान आकर्षित करता है. यहाँ से लगभग 500 मीटर आगे चलने पर आपको तार की फेंसिंग के साथ एक गेट लगा स्थल इसके संरक्षण का प्रमाण देता है जहां निगरानी के लिए एक कर्मचारी को नियुक्त किया गया है. सुबह 8:00 बजे से यह द्वार आगंतुक पर्यटकों के लिए खोल दिया जाता है. मुख्य द्वार के अंदर घुसने के साथ ही बांई ओर दक्षिण दिशा में राष्ट्रीय पुरातत्व रायपुर मंडल का चौकोर बोर्ड इस स्थल की आवश्यक जानकारी आपको उपलब्ध कराता है. पहाड़ों के किनारे किनारे सीमेंट कंक्रीट की निर्मित सड़क से लगभग 500 मीटर चलने के बाद कालिदास की भव्य नाट्यशाला दिखाई पड़ती है जिसका आकर्षक द्वार एवं ऊंचाई पर बने इस गुफा नुमा मंच का आकर्षण आपको अपनी ओर खींचता है.
भू निर्देशांक 22° 53`, 53.3 ” उत्तरी अक्षांश तथा 82` 46″ पूर्वी देशांतर में स्थित रामगढ़ पहाड़ी की यह उपस्थिति सीता बेंगरा एवं जोगी माड़ा के स्थानीय नाम से अपनी पहचान बनाती है. प्रारंभिक रूप से लगभग 2200 वर्ष पुराने पत्थरों से उत्कीर्णित संरचना का यह अद्वितीय उदाहरण है . इस मंच तक पहुंचने के लिए बांई ओर सीढ़ियां बनाई गई है. रंगमंच अपने विशिष्ट शैली में आयताकार बना हुआ है. इस मंच का आयताकार निर्माण कलाकारों के संवाद और स्वर को अनुनादके द्वारा काफी दूर तक पहुंचाने में मदद करता है. इस मंच की उत्तर दक्षिण लंबाई लगभग 14 मीटर एवं चौड़ाई 5 मीटर तथा ऊंचाई 1.8 मीटर है. सामने का हिस्सा अर्थ चंद्राकर है जो सामने दर्शकों के बैठने के लिए भी बनाया गया है. वर्तमान में इसे बीच में खोदकर इसे तीन भागों में विभाजित कर दिया गया है . ताकि पानी के कटाव से यह स्थल सुरक्षित रह सके. इसके पहले हिस्से में पत्थरों के ऊपर दो पैरों के निशान बने हुए हैं जिसे स्थानीय निवासी द्वारा भगवान राम के आध्यात्मिक चिंतन के साथ जोड़कर देखा जाता रहा है.
पूर्व मुखी स्थित सीता बेंगरा के इसी मंच के किनारे उत्तर पूर्व एवं दक्षिण पूर्व दिशा में दो कमरेनुमा गुफाएं हैं. इसकी भीतरी पत्थर की दीवारों पर विभिन्न चित्रो के साथ ब्रह्म लिपि में लिखे कुछ वाक्य उत्कीर्ण है जो विद्वानों के अनुसार ईशा पूर्व द्वितीय एवं तृतीय शताब्दी के माने जाते हैं. उत्कीर्ण अभिलेख में देवदासी सुतनुका एवं कलाकार देवदीन के प्रेम प्रसंग का उल्लेख दिखाई पड़ता है. गुफा में नृत्य समूह, पौधे, ज्यामिति अलंकरण,मछली एवं पशुओं के समूह का उल्लेख है.
विद्वान लेखक संजय अलंग ने अपनी पुस्तक “छत्तीसगढ़ इतिहास एवं संस्कृति” में इन गुफाओं में उत्कीर्ण पंक्तियों को वृहद रूप से हिंदी रूपांतरित कर लिखा है. सीता बेंगरा की उत्तर पूर्व छत पर पाली भाषा में उत्कीर्ण पंक्तियां इस प्रकार हैं –
आदि पयंति हृदयम् ( हृदय को आलोकित करते हैं )
इसी तरह द्वितीय पंक्ति (स्वभाव से महान ऐसे कविगण मित्र बसंती दूर है)
तीसरी पंक्ति (हास्य और संगीत से प्रेरित)
चौथी पंक्ति (चमेली और पुष्प की मोती मालाओं का आलिंगन करताहै.
जोगीमाड़ा (ऋषियों का बैठक स्थल) का मुख्य मंच लगभग 30 फुट लंबी एवं 15 फुट चौड़ी है इसी मंच के पूर्व मुखी द्वार में लिखित पंक्तियां –
सुतनुक नाम (सुतनुका नाम की)
देवदाशिर्याम् ( देवदासी थी )
तम् कमयिथ वलन शेये ( प्रेमासिक्त किया, गंगा के दक्षिण मंदिरों के नगर वाराणसी निवासी)
देवदिने नमा लुपदखे (देवदीन नाम का रूपदक्ष कलाकार ने)
हजारों वर्ष पहले भारतीय नाट्य परंपरा के मुक्ताकाशी रंगमंच का यह अद्भुत उदाहरण है जो हमारी तत्कालीन मानवीय भावना एवं रंगमंच के प्रति आसक्ति को प्रदर्शित करता है. इस रंगमंच की 2200 वर्ष पूर्व की स्थिति तत्कालीन समयकाल की इस अंचल की आबादी एवं निवासियों के सामाजिक उच्च स्तरीय रहन-सहन एवं विन्यास की एक झलक प्रदर्शित करता है. यह प्राचीन नाट्य मंचन धरोहरों के हमारे इतिहास का एक आईना है. विद्वानों के अनुसार यह देवदासी प्रथा का प्रारंभिक काल था.
वर्ष 1990 में इस रंगमंच को देखने हेतु अपने पर्यटन के दौरान लेखक ने सीता बेंगरा के उत्तर पूर्व एवं दक्षिण पूर्व के गुफा कक्ष में बाहर बने लगभग छै इंच के दो छेद देखे थे. जो बाहर छोटे एवं भीतरी हिस्से में धीरे धीरे बड़ा कर दिया गया था. जिससे एक उल्टा शंकु आकार अंधेरे हिस्से में कलाकारों को वेशभूषा बदलने के लिए सूर्य की पर्याप्त रोशनी उपलब्ध कराता था वहीं पूर्व दक्षिण दिशा में बना शंकु आकार का क्षेत्र दोपहर बाद के लिए पर्याप्त सूर्य की रोशनी कलाकारों को रूप बदलने के लिए उपलब्ध कराता था. इस तकनीक से बाहर के भीतर प्रवेश करने वाली थोड़ी सी सूर्य की किरणें पूरे अंधेरे गुफा को आलोकित कर देती थी, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि एक हिस्से के टूट जाने से आशंकित वर्तमान प्रशासन ने इसे बंद कर दिया है ताकि इसे संरक्षित किया जा सके किंतु ऐसे निर्माण से हमारी प्राचीन तकनीक का एक हिस्सा वर्तमान के अंधेरे में गुम हो गया है . अब अंचल के लोग उसे बांस एवं पर्दे लगाने हेतु बनाए गए छेद है ऐसा बताने लगे हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि मुक्ताकाशी रंग मंच में पर्दे नहीं लगाए जाते थे और दृश्य परिवर्तन के लिए “यवनिका” शब्द का उपयोग किया जाता था.
छत्तीसगढ़ रायपुर राजधानी से 280 कि.मी. दूर एवं अंबिकापुर जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दूर उदयपुर विकासखंड के रामगिरी पहाड़ों की श्रृंखला में स्थित यह रंगमंच इतिहास के पन्नों की वह दास्तान है जो हमारे समृद्ध ऐतिहासिक धरोहर की कहानियों से हमें परिचित कराती है. त्रेता युग के वनवासी भगवान राम के इस बियाबान जंगल में रहने वाले ऋषि मुनियों का आशीर्वाद लेने का जिक्र आता है. यह भी कहा जाता है कि वनवासी भगवान श्रीराम ने माता सीता एवं छोटे भाई लक्ष्मण के साथ इसी रामगिरी पर्वत पर अपना दूसरा चौमासा बिताया था. इसी कारण यहां के निवासियों की धारणा को बल देते हुए इसका नाम सीता बेंगरा एवं जोगी माड़ा रखा गया है. इसके पीछे एक गुफा , लक्ष्मण गुफा भी स्थित है. इस रंगमंच की पहाड़ी से नीचे उतरने पर हथफोड़ गुफा अर्थात हाथी द्वारा फोड़कर बनाई गई प्राचीन गुफा है. जिसके नीचे पहाड़ी की चट्टानों से रिस -रिस कर बूंद बूंद पानी नीचे आता है. जो यहां वन्य प्राणियों एवं पिकनिक बनाने वाले वालों के उपयोग आता है .राम वनगमन मार्ग के शोधकर्ता डा. मन्नू लाल यादव के अनुसार तृतीय देवासुर संग्राम के समय चतुरंगिणी सेना को युद्धस्थल सोन नदी तट पर पहुंचने के लिए इस रामगिरी पहाड़ का मार्ग बाधक था जो उत्तर दिशा से आने वाले सैनिकों का बाधक था और इसके लिए रामगिरी पर्वत के पास हथफोड़ यानी हाथी द्वारा फोड़ा हुआ सुरंग बनाया गया जो तृतीय देवासुर संग्राम का साक्षी है. इस सुरंग से बिना पहाड़ पार किए नीचे इस सुरंग से निकलकर सेना सोन नदी के युद्धस्थल तक पहुंच सकी थी.

इस नाट्यशाला से आगे जाने वाला मुख्य मार्ग आगे रामगढ़ पहाड़ी की ओर जाता है जो कुछ दूर तक ढलाई करके कंक्रीट की सड़क ऊंचाई पर पहुंचने के लिए बना दी गई है लेकिन यह सड़क अभी पूरी तरह नहीं बनी है इस सड़क से उतरकर आपको पैदल लगभग 1 किलोमीटर ऊंचाई पर पहुंचना होगा. भगवान राम के कई अवशेष और किवदंतियों के साथ यहां की आस्थाएं जुड़ी हुई है.
ऐतिहासिक पक्ष के मजबूत दस्तावेजों के साथ “प्राचीनतम् नाट्यशाला एवं भगवान राम के यादों से भरी वादियों ” का यह पर्यटन स्थल आपको परिवार सहित आमंत्रित कर रहा है. निश्चित मानिए कि यह पर्यटन स्थल आपके जीवन को आस्था एवं ऐतिहासिक घटनाओं के साथ-साथ विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला के अविस्मरणीय धरोहरों से जोड़ देगा. एक बार यहां की पर्यटन यात्रा आपको जीवन भर याद रहेगी.
बस इतना ही फिर मिलेंगे किसी अगले पड़ाव पर ……
