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कोरिया रियासत का सुप्त ऐतिहासिक दस्तावेज
“कौड़ियागढ़”
वीरेंद्र कुमार श्रीवास्तव की कलम से।
संभाग ब्यूरो दुर्गा गुप्ता

छत्तीसगढ़ के इतिहास के पन्नों में जो जानकारी उपलब्ध है, उसके अनुसार यह दक्षिण कोशल का क्षेत्र रहा है. जिसमें कलचुरी राजाओं ने लंबे समय तक राज किया है. अभिलेखों में कलचुरी राजा स्वयं को अर्जुन के वंशज कहते थे. कलचुरी राज्य की जानकारी दूसरी शताब्दी के मध्य से प्रारंभ होकर छठवीं शताब्दी तक लगभग 350 साल की मिलती है, लेकिन छत्तीसगढ़ की कई रियासतों की तरह सरगुजा एवं कोरिया रियासत के संदर्भ में प्राचीन इतिहास के पन्ने चुप हैं क्योंकि इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है.

कोरिया रियासत का इतिहास भी कलचुरी और मुगल शासन के बाद ही स्पष्ट हो पाता है. वर्तमान छत्तीसगढ़ की सीमाएं समय-समय पर बदलती रही है. यह क्षेत्र कभी मराठों और कभी अंग्रेजी शासन के अधीन रही है. समय के परिवर्तन के साथ बिहार और वर्तमान झारखंड से भी इसका जुड़ाव रहा है. ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार सरगुजा का एक बड़ा भूभाग और कोरिया रियासत सीधी म.प्र. के बालेन्द्र राजाओं के आधिपत्य में एक लंबे समय तक रहा है. रियासत का विस्तार ज्यादा होने के कारण बालेंद्र राजा कभी-कभी ही इस क्षेत्र का दौरा कर पाते थे, बाकी का कार्य यहां के जमींदार देखा करते थे. भरतपुर में कोरापाट गांव के पास उनके पड़ाव स्थल की जानकारी से यह बात प्रमाणित होती है.

रांची कमिश्नरी के 18 वीं सदी के ब्रिटिश अधिकारी कर्नल एडवर्ड ट्यूटे डाल्टन के अनुसार पूर्व शासक बालेंद्र राजाओं को (कोंच) कोल आदिवासी लोगों ने आसपास के गोंड जमींदारों के साथ मिलकर बालेंद्र राजा को हरा दिया और उन्हें सीधी की ओर धकेलकर दक्षिणी कोरिया पर कब्जा कर लिया. चिरमिरी पहुंचकर कोरिया के दक्षिणी भाग अर्थात् (वर्तमान बैकुंठपुर, चिरमिरी और मनेन्द्रगढ़) के हिस्से पर राज करने लगे. कई वर्षों तक अपनी सैन्य एवं आर्थिक स्थिति मजबूत करने के बाद कोरिया के उत्तरी क्षेत्र चाँदभखार जमीदारी पर कब्जा करके पूरी तरह इस क्षेत्र से बालेंद्र राजाओं की सत्ता समाप्त कर दी.
अपने पुरखों की 11 पीढ़ी तक राज्य करने वाले कोल आदिवासी सबसे पहले बचरा पोंड़ी क्षेत्र में एकत्र हुए. जहां उनके कुछ भग्न अवशेष आज भी वहाँ खंडहर रुप में दिखाई पड़ते हैं. अपने सहयोगी आदिवासी गोंड जमीदारों के साथ मिलकर यही से उन्होंने राजा बालेन्द्र को हराने की योजना बनाई. सत्ता प्राप्त करने के बाद इन्होंने अपनी राजधानी कौड़िया गढ़ पहाड़ पर स्थापित किया. अभेद किले की तरह लगभग 1300 फुट की ऊंचाई पर बनी कौड़िया गढ़ में राज परिवार के रहने की सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई थी, जिसमें पहाड़ी के एक हिस्से में विशाल तालाब तथा दो सीढ़ीदार कुएं बनाए गए थे ताकि पानी की पर्याप्त व्यवस्था राज परिवार के लिए हो सके. पहाड़ी के ऊपर बने गढ़ी के चारों तरफ पत्थर की दीवार बनाकर राज परिवार को सुरक्षित रखने का प्रयास किया गया था. इस पूरी पहाड़ी पर उपस्थित सुरक्षा व्यवस्था की जानकारी इस तरह मिलती है कि आज भी जंगल पहाड़ के आसपास के क्षेत्र से इस राजमहल परिसर में आने के लिए केवल एक ही द्वार है पत्थरों से निर्मित राज भवन एवं इसकी सुरक्षा हेतु निर्मित बाउंड्री के नक्काशीदार पत्थरों के अवशेष अंश आज भी ऊपरी हिस्से एवं पहाड़ी के ढलान में नीचे की ओर यहां वहां बिखरे दिखाई पड़ते हैं.

इसी गढ़ी के पास से एक सुरंग का दरवाजा दिखाई पड़ता है जो संभवत आपातकाल स्थिति में राज परिवार को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाने का द्वार रहा होगा. यह सुरंग कहां निकलती है इसकी लंबाई क्या है और इसके भीतर कैसा मार्ग है यह भविष्य के पुरातात्विक शोध का विषय है. कुछ संदर्भ पुस्तकों में चिरमी गांव के पश्चिम में कौड़िया गढ़ के पहाड़ पर इस कौड़िया गढ़ के गढ़ी होने की कुछ जानकारी मिलती है.
17 वीं शताब्दी तक 11 पुस्तों से राज्य करने वाले कोल राजाओं ने लगभग 200 वर्षों तक इस क्षेत्र में राज्य किया. कोल राजाओं के बारे में कोई लिखित दस्तावेज अभी तक उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतिहासकार इनकी सत्ता को मान्यता प्रदान करते हैं. 17 वीं शताब्दी के अंत में मैनपुरी चौहान परिवार दलगंजन शाही एवं धारामल शाही को सरगुजा राजा द्वारा भैया बहादुर की उपाधी के साथ बसाया गया था. अपनी जमीदारी का विस्तार करते हुए यह शाही परिवार कोल राजाओं को हराकर पहले चिरमिरी क्षेत्र में तथा बाद में भरतपुर क्षेत्र अर्थात् दक्षिणी कोरिया के हिस्से पर कब्जा कर लिया और कोरिया रियासत की स्थापना की. यह कोरिया रियासत भारत संघ की स्थापना काल तक अपनी प्राकृतिक वन एवं खनिज विरासत के कारण एक समृद्ध रियासत की तरह चलती रही. 1948 में आजाद भारत को अपना राज्य सौंपने के समय इस कोरिया रियासत ने एक करोड रुपए की राशि भारत सरकार को सौपा था जो इसकी समृद्धि की गौरव गाथा है. वर्तमान समय में रियासत की समाप्ति के बाद भी भारतीय राजनीति में इस राज परिवार के सदस्य अपना दबदबा बनाए हुए हैं.

इतिहास के इस सुप्त दस्तावेज से जुड़ने के लिए आपको मनेन्द्रगढ़ जिला मुख्यालय तक पहुंचना होगा. मनेन्द्रगढ़ से खड़गवां मार्ग पर साउथ झगड़ा खांड से आगे कोड़ा और देवाडांड़ होकर बंजारी डांड़ पहुंचना होगा. इसके आगे ठग गांव की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़कर आगे बढ़कर दुग्गी चौक पहुंचना होगा इसी दुग्गी चौक से पहाड़ की ओर जाने के लिए एक कच्चा रास्ता शुरू होता है. साल एवं मिश्रित वनों केसघन वन क्षेत्र से गुजरकर ही आप कौड़िया गढ़ पहाड़ पहुंच सकते हैं. मनेंद्रगढ़ से यह दूरी लगभग 35 किलोमीटर होगी.
कोरिया जिला मुख्यालय बैकुंठपुर से बिलासपुर मार्ग पर मनसुख होते हुए बंजारी डांड़ पहुंचकर आगे का ठग गांव पहुंचना होगा. गांव से आगे मुड़कर दुग्गी चौक पहुंचेगे. इसी दुग्गी चौक से आगे कच्चे मार्ग से कौड़ियागढ़ पहाड़ी तक पहुंचा जा सकता है. बैकुंठपुर से यह दूरी लगभग 25 किलोमीटर होगी.
कौड़िया गढ़ की ऊंची पहाड़ी पर जाने के लिए पहाड़ी रास्ते के सहारे धीरे-धीरे संभल कर चलना होगा. यह रास्ता अपनी चढ़ाई एवं वन क्षेत्र होने के कारण ऐतिहासिक स्थलों की खोज और पहुंच को रोमांचक यात्रा के रूप में परिवर्तित कर देता है. इस पहाड़ी पर चढ़ने के लिए रोमांचक ट्रैकिंग ग्रुप बनाकर भी चढ़ा जा सकता है. टेढ़े-मेढ़े रास्ते से धीरे-धीरे पहाड़ी मार्ग की यात्रा करते हुए 1200 फुट की ऊंचाई तय करने के बाद एक प्राचीन मंदिर और प्राकृतिक जल स्रोत का तुर्रा (पहाड़ से निकलती शुद्ध जल की धारा) दिखाई पड़ती है. यहां का शीतल जल पीकर अब आप आगे की खड़ी चढ़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं. 100- 150 फीट और अधिक ऊंचाई पर चढ़ने के बाद एक समतल स्थल दिखाई पड़ता है जहां कोल राजाओं के गढ़ी के अवशेष पत्थरों के ढेर एक विशाल तालाब तथा दो सीढ़ीदार कुएं दिखाई पड़ते हैं. इसी गढ़ी के एक हिस्से में शिव मंदिर भी बना हुआ है जहां श्रद्धालुओं ने भोले बाबा का चिमटा और त्रिशूल गाड़ दिया है. यहां पर हवन कुंड में हवन के अवशेष मिलते हैं, जहां श्रद्धालू भोले शंकर की पूजा अपनी इच्छा अनुसार करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के इतिहास के अनजान सुप्त पन्नों की कहानी के कुछ प्रमाण समेटे कौड़िया गढ़ की यह पहाड़ी अपने सीने में कौन-कौन से राज छुपाए हैं यह जानना अभी दूर की कौड़ी है. लेकिन यहां के एक भाग में गढ़ी की दीवारें और सुरक्षा हेतु बने परकोटे के नक्काशीदार बिखरे पत्थर आदिवासी कोल राजाओं के शौर्य, पराक्रम, एवं वीरता की कहानी के दस्तावेज जरूर प्रस्तुत करते है. तत्कालीन समय के सघन जंगलों के बीच रहने और राजा तथा प्रजा से भरपूर एक सभ्यता की उन्होंने शुरुआत की थी. आज के कोरिया की समृद्धि एवं स्वस्थ समाज के अदृश्य इतिहास की कहानी इन पत्थरों में दर्ज है. जो कहते हैं कि अपने उन इतिहास पुरुषों को हमेशा याद रखना जिन्होंने इस मिट्टी को प्रारंभ संधर्षो के साथ अपने श्रम, साहस और पसीने से सींचा है.
वर्तमान समय में कुछ आदिवासी समूह इस कौड़ियागढ़ पहाड़ी पर नवरात्रि के समय नौ दिनों का जवारा रखते हैं. नवरात्रि पूजा के साथ अंचल की सुख समृद्धि के लिए देवी माँ से कामना की जाती है. नौ दिनों तक लगातार चलने वाले नवरात्रि पूजन में स्थानीय लोगों एवं बाहरी पर्यटकों का आना-जाना लगा रहता है जिससे इस पहाड़ी के ऐतिहासिक पक्ष के बारे में जानने की जिज्ञासुओं की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है. मेवालाल नेटी जी के नेतृत्व में विगत 15 वर्षों से चल रहा यह आयोजन स्थानीय लोगों को इसके इतिहास से जोड़ने का प्रयास है. पुरखों की माटी को उनकी आदिवासी संस्कृति से जोड़े रखने का उनका यह प्रयास प्रसंशनीय है.

छत्तीसगढ़ के मनेन्द्रगढ़, चिरमिरी, भरतपुर जिले के खड़गवां विकासखंड में फैली पहाड़ियों में कौड़ियागढ़ पहाड़ की विरासत को पर्यटक नजरिए से महसूस करने के लिए हम आपको आमंत्रित करते हैं. मनेन्द्रगढ़ जिले के कई पर्यटन स्थलों की तरह यह भी अपने विकास की संभावनाओं के लिए छत्तीसगढ़ शासन एवं पर्यटन विकास विकास विभाग की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है. महानगरों के आसपास इस तरह के पर्यटन स्थल राष्ट्रीय पर्यटन नक्शे में जल्दी शामिल हो जाते हैं क्योंकि वहां आने जाने वाले पर्यटकों की ज्यादा संख्या इस महत्वपूर्ण बना देती है. इस तरह बड़ी संख्या में पर्यटकों का आना पर्यटन को विकास की ओर जोड़ता है. आप अपने संपर्क के एनजीओ के माध्यम से युवा पीढ़ी को ट्रैकिंग पर्यटन यात्रा के लिए भी इसे प्रस्तावित कर सकते हैं.

बस इतना ही
फिर मिलेंगे अगले पड़ाव पर
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