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पर्यावरण एवं समाज चिंतन क्र. – 18

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हम नई पीढ़ी को कौन सी संस्कृति सौंपना चाहते हैं
          “अपने उत्थान की या पतन की”

                                     बीरेन्द्र श्रीवास्तव की कलम से

संभाग ब्यूरो दुर्गा गुप्ता

                     विशाल भारत की संस्कृति ऋषि मुनियों की संस्कृति रही है, जिसका विस्तार विश्व के बहुत से देशों में रहा है.  प्राचीन इतिहास के पन्नों में  दर्ज हमारी उच्च ज्ञान परंपरा के कारण इसके अनुयाई पूरे विश्व में पाए जाते थे. शिक्षा और संस्कारों के इसी संस्कृति के पोषक होने के नाते हम अपने, ऋषियों के आदर्श और विद्वता को समय समय पर याद कर गौरवान्वित होते हैं.  हमारे घरों में सम्पन्न होने वाले संस्कार और  पूजापाठ में इन्हीं ऋषियों के नाम और गोत्र पुजारी या पंडित जी  द्वारा स्मरण  कराया जाता है.  पुजारी द्वारा आपका अपना नाम और गोत्र का नाम लीजिए कहा जाता है आपने सुना होगा —
जम्बू  दीपे भरतखंडे आर्यावर्त्ते अमुक स्थाने, नर्मदा तटे,सूर्य उत्तरायणे, अमुक गोत्रे,  अमुक नामे (अपना गोत्र और अपना नाम ले लें)
                  जैसे श्लोक से पूजा का संकल्प प्रारंभ होता है.  यही गोत्र हमारे उच्च आदर्श परंपरा का संवाहक है. हम नैतिक रूप से स्वयं को किसी न किसी ऋषि संतान से  जोड़कर अपना परिचय पूजा पाठ में ईश्वर के सम्मुख संकल्प लेकर देते रहे है.   अपने बच्चों को भी  श्रद्धा पूर्वक हाथ जोड़कर पूजा स्थल  पर अपने वंशजों का ज्ञान स्थानांतरित करते हैं.  हम चाहते हैं कि इन्हीं ऋषि मुनियों की तरह एक स्वस्थ समाज के निर्माण  में मेरी संतान भी शामिल हो, क्योंकि  हम स्वयं  ऋषि संतान होने पर  गर्व अनुभव करते हैं और इसे अपने बच्चों को आगामी पीढ़ी तक सौंपने के लिए सिखाते हैं.  हमारे आदि ग्रंथ  महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 296 में वर्णित है कि प्रारंभ में चार  मूल  गोत्र थे, जिनके नाम ऋषि अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ, और भृगु के नाम पर  गोत्र परंपरा आगे बढ़ी, लेकिन बाद में जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र तथा अगस्त जैसे ऋषियों के नाम भी गोत्र में जुड़ गए.  अच्छे कुल के गौरव से जुड़ाव  की आस्था  हिंदू समाज में इतनी ज्यादा है कि  जिनको अपना गोत्र नहीं मालूम उन्हें पुराणों की मान्यता अनुसार कश्यप गोत्र की मान्यता दी जाती है. जो हमारे आदि पुरुष माने जाते हैं.  हम उनके धर्म आचरण, शांति, सद्भावना, दूसरे प्राणियों पर दया एवं सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया  के आदर्शो का पालन करने के लिए स्वयं को वचनबद्ध करते हैं. गलत का विरोध और और सत्य का अनुसरण हमारी पहचान है.  हम अपने बच्चों को  सुसंस्कृत समाज की स्थापना हेतु शिक्षित करते हैं.

                   हमारे देश में शिक्षा की  गुरुकुल परंपरा रही है.  शिक्षा पद्धति में हमने तर्क वितर्क जैसी विधि का उपयोग कर विश्व गुरु का स्थान प्राप्त किया था. पांचवी से 12 वीं शताब्दी तक ज्ञान परंपरा का एक उत्कृष्ट केंद्र नालंदा अपनी व्यापक ज्ञान प्रणाली का मुख्य केंद्र रहा है. सम्राट कुमार गुप्त ने लगभग 427 ईस्वी में नालंदा की स्थापना की थी, लेकिन प्रारंभिक बौद्ध धर्म से विकसित होकर यह विश्व के सबसे बड़े शिक्षा केद्रों  में से एक बन गया. इसकी विशालता का आकलन इसी से लगाया जा सकता है कि तात्कालीन समय में यहां दस हजार  से अधिक छात्र अध्ययन करते थे. नालंदा विश्वविद्यालय हमारे देश की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का एक विशिष्ट उदाहरण है जिसने अपने उच्च मानक शिक्षा के कारण  चीन, कोरिया, जापान, तिब्बत, मंगोलिया, श्रीलंका और दक्षिण पूर्व एशिया सहित दुनिया भर के विद्वानों को आकर्षित किया. इस विश्वविद्यालय में किसी वर्ग विशेष या नस्लीय भेद के अंतर को स्थान नहीं दिया जाता था. यहां के छात्र बौद्ध धर्म का तत्व ज्ञान, आयुर्वेद चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र जैसे विषयों में पारंगत होकर निकलते थे.  समय के बदलाव के साथ हमारे देश के  कुछ पड़ोसियों को ज्ञान परंपरा की यह विशालता उनके आंखों की किरकिरी बन गई, यही कारण है कि 12वीं शताब्दी में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के आक्रमण में यह सब कुछ नष्ट हो गया.  पुस्तकों के विशाल पुस्तकालय में आग लगाकर इसे समाप्त कर दिया गया.

                         उच्च विरासत की यह ज्ञान परंपरा हमारे खून  में आज भी दौड़ रही है.  इस ज्ञान परंपरा के वंशज होने के नाते हम इस पर गर्व करते हैं किंतु हमने अपने आदि पुरुष के आदर्शों और ज्ञान को  जाने कब भुला दिया यह हमें पता ही नहीं चला.  राजनीतिक शिकंजों में कसा हमारा समाज अपने नैतिक मूल्यों से धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है. हमारे बच्चों की भ्रष्ट आचरण और दूसरों को कुचलकर आगे बढ़ने की परंपरा दिनों दिन आगे बढ़ रही है.  भ्रष्टाचार इतनी गहराई तक जड़े जमा चुका है कि समाज में स्वच्छ छवि के व्यक्तित्व अब मुट्ठी भर लोग रह गए हैं.  निराश लोगों को ऐसा लगने लगा है कि भ्रष्ट नीतियों के अतिरिक्त और कोई रास्ता हमारी सफलता के लिए शेष नहीं रहा है  लेकिन इन सबके बावजूद समाज में एक वर्ग आज भी है जो इस समाज को परिवर्तन करने की क्षमता रखता है.
एक कहावत है।      “चोर का जी आधा”
निश्चित तौर पर इस ईमानदार वर्ग के पास आधी ताकत भ्रष्ट  प्रकृति के विरुद्ध लड़ने के लिए  हमेशा मौजूद रहती है और यदि इसमें थोड़ी सी ताकत और जुड़ जाती है तब इसके विरोध  एवं एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए आगे बढ़ने को कई लोग तैयार मिलते हैं.

                      रोजमर्रा के जीवन में नियम कानून बनाकर एक स्वस्थ समाज की स्थापना की कल्पना को कुछ लोग आघात पहुंचा रहे हैं.   स्वस्थ समाज के निर्माण  एवं व्यवस्थित जीवन हेतु बनाए गए नियम कानून की पंक्तियां अब व्यवस्था को सुधारने हेतु नहीं बल्कि आम नागरिकों को उलझाने के लिए उपयोग किया जा रहा है. यही कारण है कि लोगों का विश्वास धीरे-धीरे नियम कानून से भी उठने लगा है. आज के परिवेश मे  यह बेहद  चिंतनीय विषय है.  कानून ऐसे होने चाहिए जिसे आमजन मन से स्वीकार करें  और उसका अनुसरण कर एक  स्वस्थ  एवं व्यवस्थित समाज का निर्माण करने हेतु सहजता से आगे बढ़ सके. नियम कानून का पालन कराने वाले अधिकारियों को आगे बढ़कर नियमों के पालन के अड़चन दूर करने के उपाय भी लोंगो को बताने होंगे तभी हम कानून के पालन के लक्ष्य तक पहुंच पाएंगे.   समाज के निर्माण में हम अपने अच्छे बुरे कार्यों से अपने वंशजों को गौरवान्वित या अपमानित करते हैं.  मैंने ऐसे कई दृष्टांत देखे हैं जिसमें अधीनस्थ कर्मचारी द्वारा अपने अधिकारियों को यह कहते हुए सुना गया है कि श्रीमान जी आपके द्वारा किए गए गाली गलौज जैसे अपशब्दो का प्रयोग या  दूसरों को अपमानित करने की भाषा  आपकी नहीं आपके पूर्वजों के दिए संस्कार है इसलिए आपको  दोष देने से क्या फायदा. इस एक वाक्य से अपमानित होते अधिकारियों को मैने देखा है.  ऐसे कह गए एक वाक्य से आपके माता-पिता दादा और परदादा भी अपमानित होते हैं. सत्यता यही है कि जिस दिन समाज का हर व्यक्ति अपने बुजुर्गों के सभ्य , ईमानदार, संस्कारों  को मानना प्रारंभ कर देगा तथा  आगामी पीढ़ी को सौंपने में गर्व अनुभव करेगा उसी दिन हम एक संस्कार युक्त और भ्रष्टाचार मुक्त समाज निर्माण करने में सफल हो सकेंगे.

                          भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने की कोशिश आज एक जटिल प्रक्रिया बन चुकी है न्याय की चौखट तक ले जाने वाले सेवक और न्याय व्यवस्था इतनी ज्यादा खर्चीली और समय साध्य हो गई है जहां तक आम आदमी का पहुंचना भी अब  मुश्किल हो रहा है.  यह परिस्थितियां एक साल या छै  महीने में नहीं आई है बल्कि कई वर्षों का परिणाम है.  हमारे नैतिक मूल्यों में आई गिरावट के कारण ही ऐसी परिस्थितियां बन रही है.  बाजारवाद की पृष्ठभूमि में बढ़ता समाज हर खुशियों को पैसे में खरीदना चाहता है.  आर्थिक संसाधनों को बढ़ाने का बढ़ता दबाव समाज को भ्रष्टाचार की ओर धकेलता रहा है. आर्थिक दबाव में भ्रष्ट तरीके से कमाई गई संपत्ति को जब हम अपने  अपने बच्चों के विकास में खर्च करके प्रसन्न होते हैं निश्चित मानिए ऐसी परिवरिश  कुछ समय के लिए आपको प्रसन्नता दे सकती है लेकिन आपके द्वारा किया गया गलत आचरण के संस्कारों में पली यह पीढ़ी आपके गलत रास्ते का अनुसरण करेगी.  इसका प्रभाव अब हमारे  व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन पर स्पष्ट दिखाई देने लगा है. समाज में माता-पिता के प्रति सेवा  भाव में कमी और बढ़ते हुए वृद्धाश्रमों की संख्या तथा आए दिन धन के लिए बच्चों से माता-पिता के प्रति  बैर भाव हमारी सामाजिक जीवन की दिनचर्या में शामिल हो रहे हैं.  यह सामाजिक परिवर्तन हमें समय-समय पर अपने व्यवहार में बदलाव लाने के लिए  सचेत करते रहते हैं. जरूरत इस बात की है कि हम उसे देखकर भी अनदेखा ना करें. समय के  परिवर्तन की मार जब स्वयं पर पड़ती है तब हम अपने बच्चों पर अर्थात आगामी पीढ़ी पर दोषारोपण करते हैं. जबकि उसके लिए हम स्वयं दोषी होते हैं.

                             भ्रष्टाचारण के कई उदाहरण हमें आज हमारे चारों तरफ दिखाई पड़ते हैं. लोक सेवा आयोग से लेकर छोटी-छोटी प्रतियोगी परीक्षाओं में एवं चयन की नीतियां भी अब अपनी विश्वसनीयति  खो रही है.  हालांकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने हेतु न्याय व्यवस्था का प्रयास प्रशंसनीय है लेकिन सच तो यह है कि कितने लोग वहां तक पहुंच पाते हैं.  मैंने कई उदाहरण ऐसे भी देखे हैं  जिसमें  इंजीनियर,  डॉक्टर, एवं  फिजियोथैरेपिस्ट से लेकर सामान्य कर्मचारियों  के चयन हेतु   योग्यता एवं पात्रता सूची में सर्वाधिक अंक प्राप्तकर्ता प्रथम  प्रत्याशी को भी मौखिक साक्षात्कार में अयोग्य घोषित कर दिया जाता है.  जबकि प्रत्याशी के पास  छै  वर्षों की राज्य सेवा या केंद्र सेवा में अपनी सेवाएं देने के प्रमाण भी मौजूद रहे हैं. भ्रष्ट राजनीतिक दबाव के कई उदाहरण हमारे सामने ऐसे भी हैं जिसमें राजपत्रित अधिकारियों को भी गलत रिपोर्ट देने के लिए बाध्य  किया गया है.  जो आज भी समय के पन्नों में दर्ज है.

                         ढेर सारी कर्मियों एवं भ्रष्ट नीति के दबाव में संचालित भारतीय समाज में अभी भी  सभ्य संस्कारवान ऐसे लोग हैं जो इस देश के संस्कारों को ढाल कर एक व्यवस्थित एवं सुसंस्कृत भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना हेतु निरंतर प्रयासरत है.  उन्हें विश्वास है कि हम अपनी समृद्ध भारतीय  परंपरा संस्कार एवं अपने आदि पुरुषों की विरासत के अनुसार एक गौरवशाली समाज स्थापित करने में जरुर सफल होंगे.  प्रत्येक धर्म की नैतिक शिक्षा  हमें हमेशा नेक सत्य, परोपकारी एवं आपसी एकता सद्भाव के गुणों से सम्पन्न समाज की स्थापना का संदेश देती है जिसमें यह शामिल होता है कि हमारे किसी भी कृत्य से किसी दूसरे को चोट ना पहुंचेकिसी दूसरे का अहित न करें  दूसरों के हक छीनने की हर कोशिश गलत है.   एक सभ्य और भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना के लिए बस इतनी आवश्यकता है कि हम अपने बुजुर्गों एवं आदि पुरुष के संस्कारों पर गर्व करें. हम अपने  किसी भी अपशब्द से या भ्रष्ट  समाज विरोधी  कार्य से उन्हें अपमानित न होने दे, तभी आगामी पीढ़ी से समय एवं भ्रष्टाचार मुक्त समाज की उम्मीद की जा सकती है.    
                     जिस दिन   “मैं गलत नहीं करूंगा”  का संकल्प हम ले लेंगें, निश्चित मानिए सभ्य सांस्कृतिक और भ्रष्टाचार मुक्त समाज के सपने को सत्य होने  में समय नहीं लगेगा.

बस इतना ही
फिर मिलेंगे
किसी अगले चिंतन में


                           

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