जशपुर: किलकिला नदी में अवैध खनन पर गंभीर आरोप, प्रशासन की भूमिका पर उठे सवाल – क्या अब होगी प्रभावी कार्रवाई?
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जशपुर। जशपुर जिले की किलकिला नदी में जारी अवैध बालू खनन अब केवल एक पर्यावरणीय चिंता तक सीमित नहीं है; यह सीधे तौर पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सुशासन पर सवाल उठा रहा है। मांड नदी, जो इस क्षेत्र के लिए जीवनदायिनी है, अब कथित तौर पर सत्ता के संरक्षण, आपराधिक गतिविधियों और प्रशासन की संदिग्ध निष्क्रियता का एक बड़ा उदाहरण बन चुकी है। यहाँ से हर ट्रैक्टर जो बालू ढोता है, वह केवल खनिज संपदा नहीं ले जाता, बल्कि ऐसे आरोप हैं कि वह जनता के अधिकारों और संवैधानिक प्रावधानों का भी कथित तौर पर उल्लंघन कर रहा है।
कथित तौर पर इस क्षेत्र में कानून का नहीं, बल्कि अवैध रूप से बालू ढोने वाले ट्रैक्टरों का राज चलता है। स्थानीय अधिकारियों पर निष्क्रियता के आरोप हैं; उनके जवाब अक्सर ‘हम देख रहे हैं’ या ‘हम जाँच करेंगे’ तक सीमित रहते हैं। सबसे चिंताजनक बात यह है कि पंचायतों पर भी अवैध गतिविधियों में ‘सहयोग’ करने के गंभीर आरोप लग रहे हैं।
पत्रकारों को कथित धमकियां: सच सामने लाने की चुनौती
स्थिति और भी गंभीर तब हो जाती है जब सत्य को उजागर करने की कोशिश करने वाले पत्रकारों को कथित तौर पर धमकाया जाता है।
- ऐसे आरोप हैं कि अगर कोई पत्रकार कैमरा उठाता है, तो उसे कथित तौर पर धमकियाँ मिलती हैं।
- यदि कोई कलम चलाता है, तो कुछ असामाजिक तत्व कथित तौर पर बाधा डालने का प्रयास करते हैं।
प्रशासन की प्रतिक्रिया अक्सर एक ही रही है: “हम जाँच करेंगे।” इस ‘जाँच’ की गति और प्रभावशीलता पर लगातार सवाल उठते रहे हैं, क्योंकि अवैध गतिविधियां कथित तौर पर बेरोकटोक जारी हैं।
स्थानीय पंचायत प्रतिनिधि: कथित संलिप्तता के आरोप
यह विशेष रूप से चिंताजनक है कि स्थानीय पंचायत प्रतिनिधियों पर भी अवैध बालू खनन में कथित संलिप्तता के गंभीर आरोप हैं। बताया जा रहा है कि एक पंच अपनी स्वयं की गाड़ी का उपयोग अवैध रूप से खनन की गई बालू ढोने में कर रहा है। सरपंच पर भी इस अवैध धंधे को कथित तौर पर ‘संरक्षण’ देने का आरोप है। ऐसे आरोप हैं कि पंचायत भवन भी कथित तौर पर जनसेवा केंद्र के बजाय अवैध खनन से संबंधित गतिविधियों के केंद्र के रूप में उपयोग हो रहा है, जहां से ट्रैक्टरों की आवाजाही और संबंधित कार्य कथित तौर पर निर्धारित होते हैं।
प्रशासनिक जवाबदेही पर उठे सवाल: क्या संवैधानिक दायित्वों की अनदेखी हो रही है?
जब इतनी बड़ी मात्रा में अवैध गतिविधियां कथित तौर पर खुलेआम चल रही हैं, तो विभिन्न प्रशासनिक विभागों की भूमिका पर गंभीर सवाल उठते हैं:
- खनिज विभाग: क्या उन्हें इन गतिविधियों की जानकारी नहीं है, या जानबूझकर अनदेखी की जा रही है?
- पुलिस विभाग: ‘हम देख रहे हैं’ की प्रतिक्रिया कब तक प्रभावी होगी?
- राजस्व विभाग: क्या उन्हें स्वयं संज्ञान लेकर शिकायत दर्ज करने का अधिकार नहीं है?
जनता जानना चाहती है: इतनी स्पष्ट अनियमितताओं के बावजूद, प्रशासन की ओर से ठोस और प्रभावी कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? क्या अधिकारी इस स्थिति की गंभीरता को पूरी तरह से समझ नहीं पा रहे हैं, या कोई अन्य कारण है?
- पर्यावरणीय विनाश: एक अपरिहार्य और भयावह परिणाम
- यदि एक नदी को इस तरह से कथित तौर पर लूटा जाता रहा, तो इसके पर्यावरणीय परिणाम भयावह और अटल होंगे:
- सूखी नहरें और बर्बाद खेती: किसानों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा।
- बढ़ता पलायन: रोजगार और पानी की कमी के कारण युवा अन्य क्षेत्रों की ओर रुख करेंगे।
“विकास के नाम पर” उजड़े गाँव: प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और समुदाय प्रभावित होंगे।
- यह कोई भविष्यवाणी नहीं, बल्कि उसी ‘रेत आधारित विकास मॉडल’ का संभावित परिणाम है जिसे छत्तीसगढ़ के कई अन्य इलाकों ने पहले भी अनुभव किया है, और अब जशपुर उसी राह पर कथित तौर पर अग्रसर है।
जनता की आवाज़: ‘अब और नहीं!’ – आंदोलन की तैयारी
“बस बहुत हुआ!” का नारा अब केवल नारा नहीं, बल्कि एक स्पष्ट चेतावनी है। किलकिला में सिर्फ बालू का अवैध खनन नहीं होगा, अब जनता का आक्रोश और विरोध प्रदर्शन भी मुखर होगा।
- यदि इस मामले में जांच और कड़ी कार्रवाई नहीं हुई, तो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन और धरने दिए जाएंगे।
- यदि माफिया को कथित संरक्षण मिलता रहा, तो जनता सड़कों पर उतरने को मजबूर होगी।
- यदि पत्रकारों को कथित धमकियां मिलना जारी रहा, तो कलेक्टोरेट का घेराव किया जाएगा।
- क्योंकि जब लोकतंत्र के मूल्यों का कथित उल्लंघन होता है, तो जनता चुप नहीं रहती – वह केवल सुनवाई की मांग नहीं करती, बल्कि अपने अधिकारों के लिए संगठित होकर संघर्ष करती है।
आख़िरी सवाल प्रशासन से: आप कब अपनी जिम्मेदारियों को समझेंगे और इस गंभीर समस्या पर अंकुश लगाएंगे? क्या आपको प्रभावी कार्रवाई के लिए तब तक इंतज़ार करना होगा जब तक नदी में विनाश के निशान स्पष्ट न हो जाएं, या जब तक पत्रकारों की आवाज़ को दबाकर आप अपनी ‘सुरक्षा’ मान न लें? अब यदि ठोस कार्रवाई नहीं हुई, तो जवाब आपको सीधे जनता को देना होगा।
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